जन्नत ऋत्विक.Aug 5, 2025Aug 10, 2025 हा जन्नत ही तो हूं मैं। अगर इस ढलती सांज के नज़ारे लुट सको तो जन्नत हूं मैं, अगर इन मेहकाती हवाओंको महसूस कर सको तो जन्नत हूं मैं, अगर सागर पर बिखरे हुए चांदनी की चादर को और लहरों की वाणी को अपने मन के दुखों का मरहम बना सको तो जन्नत हूं मैं। <span class="nav-subtitle screen-reader-text">Page</span> Previous PostबारिशNext Postयह पल Related Posts Papa जिस नाम को समझ ने में मेरी आधी उमर गुजर... ऋत्विक.Aug 18, 2025 हक है लोगों को हक है लोगों को, की हमारी काबिलियत पर शक करें;... ऋत्विक.Aug 5, 2025Aug 10, 2025 साधारण योद्धा की गाथा भीम की वीरता और गुरु द्रोण की चुप्पी सुनी, दुःशासन... ऋत्विक.Aug 5, 2025Aug 10, 2025 Leave a Reply Cancel replyYour email address will not be published. Required fields are marked *Comment * Name * Email * Website Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.
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