कभी रेत पे मैंने एक महल बनाया था,
सपनों का, उम्मीदों का, बहुत सजाया था।
सूरज की रौशनी में वो चमकता रहा,
मैं खुद से कहता — “हर मोड़ पे तू सफल रहा!”
पर लहरें बदलीं, और वक़्त का पानी चढ़ा,
जो मजबूत था, वो भी बहाव में बहा।
नक़्शे जो बनाए थे, वो धुंधले हो गए,
नाम के पीछे लगे तमगे भी खो गए।
कुछ लोग हंसे, कुछ चुपचाप गुजर गए,
कुछ ज़ख्म दिये, कुछ रिश्ते भी मर गए।
खुद से सवाल किए — क्या यही मेरी मंज़िल थी?
खुद पे सवाल किए – क्या यह मेरी ग़लती थी?
तब मैंने पहली बार ईंटें खुद चुनी,
मिट्टी से नहीं, अब दर्द से जुनी।
हर सुबह खुद को फिर से बनाना पड़ा,
हर रात डर और तानों से लड़ना पड़ा।
अब महल नहीं, एक किला बना रहा हूँ,
नींव में ठोकरें हैं, ईंटों में ख्वाब बसा रहा हूँ।
कम चमक सही, पर रोशनी गहरी है इसमें,
जो कुछ भी बन रहा है, मेरी कहानी है इसमें।