कहने को वह इक सिर्फ चाय का ठेला था,
बचपन में हमारे सपनों का वहाँ लगा मेला था।
हर चुस्की के साथ बोए थे हमने सपने,
धीरे-धीरे कम हो गए उस ठेले पर से अपने।
कोई विदेश चला गया,
तो कोई कारोबार में उलझ गया,
कोई नौकरी में फँस गया,
तो कोई जिम्मेदारियों में बह गया।
आज भी मुस्कुराते हैं हम, जब गुज़रते हैं उस रास्ते से,
बस अब होता नहीं कोई वहाँ, हाथ झलकाने वाला ख़ुशी से।
नजाने कितनी चाय के प्यालों के हम कर्जदार बन गए,
आज उन यादों के कदरदान रह गए।
ऋत्विक.